विश्व मे कितनी भीड़
अथाह सागर है लोग
मिलते जुलते रहते हैं
अनेकों से हर रोज
दो नयन वो अनजान
भीतर जैसे कोई तीर
अंतर्मन को झकझोर
अंकुरित एक नवदीप
क्यों कर बनते रिश्ते
बिन कारण व उद्देश्य
अद्भुत उमंग कर वो
भर जीवन मे हिलोरें
क्यों कर खोजें उन्हें
नेत्र भरे खालीपन को
अपने लगते क्यूं कोई
स्वयं देख नेत्र अन्यत्र🌷
प्यार की मूर्ति प्रेमिका
ममता की छांव मां
दो रूप मे संवारती
ईंटों कोठरी के घर
कुछ देर न हो जो घर
सब ठहर जाए सब
वरना तो यूं है लगता
क्या करतीं रहती है
आवाज से गूंजती हैं
बहुत बोलती है यह
कदाचित जो न हो
तो सन्नाटा पसरा रहे
पलभर मे अश्रु धारा
समेटे हुए अपार भाव
नर्म है ह्रदय से यह
चोट सह न कर पाए
इतनी अजीज दुनिया
बनाकर फिर खुदा ने
प्रेम ममता व धीरज्
भरकर ही स्त्री बनाई
इनहे अगर समझना
शब्दों पर ना जाना
पढ़ कर इनकी आंखे
इनके भाव पहुंचना
कुछ भी सह लेती
अपार कष्ट यह
पर चोट विश्वास की
उन्हें है न गुजारा
अनमोल है यह रिश्ते
मोम से है सब नाजुक
कठोर है पुरुष दुनिया
इनको संभल निभाना🌷
मिट्टी उभरे तन
ओढ़े हुए मन
संसार विचरण करते
लपेटे विचार दर्पण
इतने व्यस्त हम
लगता यूं जैसे
अनंत खेल यह
सब कुछ सत्य
बोले कृष्ण गीता
मैं ही मिट्टी से
आत्म रूप धारण
सर्वत्र हूं विचरता
स्पष्ट अध्याय १५
कितने ही तत्वदर्शी
बिन पवित्रता कोई
दर्श मुझे न पाए 🌷