क्या बोलू ...यह महज़ एक सवाल नहीं हैं ...न ही बस एक विचार ...ये दो शब्द मिल के हर बात को नयी पहचान देते हैं , ऐसे दो राहों को सामने लाते हैं जहा खुद के विवेक का प्रयोग करना ही पड़ता हैं ...बात चाहे किसी सवाल के जवाब देने की हो या फिर खुद को बताने की , या ही दूसरों को सामने लाने की, हर बार मन में ,जबान में पहली सोच ,समझ और शब्द की आवाज और आगाज़ बनता हैं यही की ....क्या बोलू ?????
Wednesday, 9 November 2011
मन ने कहा
बहुत दिनों के बाद अपने चलती -फिरती जिन्दगी के किताब मे अचानक झाकने का मन किया तो रुख मोड़ लिया .
उम्मीद है की ये सिलसिला अब बरक़रार रहेगा..........तो क्यों न अब अपनी बाते साझा करू .....
मै अपने कुछ ऐसे अनुभव लिखना चाह रही हु जिनका अनुभव मुझे अभी मिला मेरे स्लम की यात्रा के दौरान ................
वहा जाने से पहले मन मे तरह -तरह की बाते ,थोडा डर,थोड़ी उत्सुकता और क्या पूरा एक महिना मै वहा रह जाउंगी पुरे मन से या फिर कोई मज़बूरी तो नही होगी ............
जाने के लिए जब घर से निकली और वह तक पहुचते पहुचते मेरा मन हवा से भी तेज भाग रहा था कारन शायद जिन्दगी को बहुत ही नजदिग से देखने का मौका मिल रहा था और खासकर उन सारे सवालो को जानने का मौका जो शायद तब से मेरे मन मे तब से उमड़ रहे थे जब से मैंने सड़को के एक किनारे खाली मगर वह से भी हटाये जाने , किसी की दुत्कार ,और रात के अँधेरे मे चूल्हे मे अपना पेट भरने के लिए ,जलाई गई आग मे सिर्फ धुवा इसलिय फुक रहे होते है क्युकी जीने के लिए जरुरी है शायद .
छुक छुक करती रेलगाड़ी मे से जितनी भी बार मेरी नज़र उन घरो पे पड़ती थी जिसे जमाना झुग्गी -झोपड़ी कहता है ..........और एक दफा मुह सिकोड़ लेता है .शायद घर की एक निश्चित परिभाषा तय कर दी गई है एक बंगला बने प्यारा सा की भावना के साथ ..........यित पत्थरो की चार दिवारी और रंग -बिरंगे चुने से पोती हुई ..........
मे भी इन से अछूती खा रही ,मे भी तो हर दफा यही सोचती थी की आखिर इन मे रहने वाले लोग कैसे अपनी जिन्दगी आराम से बिताते होंगे और भी कई सरे सवाल ..................
उम्मीद है की ये सिलसिला अब बरक़रार रहेगा..........तो क्यों न अब अपनी बाते साझा करू .....
सुना है की बाते बाटने से......................?
ये भी बताने की बातं है क्या .......मै अपने कुछ ऐसे अनुभव लिखना चाह रही हु जिनका अनुभव मुझे अभी मिला मेरे स्लम की यात्रा के दौरान ................
वहा जाने से पहले मन मे तरह -तरह की बाते ,थोडा डर,थोड़ी उत्सुकता और क्या पूरा एक महिना मै वहा रह जाउंगी पुरे मन से या फिर कोई मज़बूरी तो नही होगी ............
जाने के लिए जब घर से निकली और वह तक पहुचते पहुचते मेरा मन हवा से भी तेज भाग रहा था कारन शायद जिन्दगी को बहुत ही नजदिग से देखने का मौका मिल रहा था और खासकर उन सारे सवालो को जानने का मौका जो शायद तब से मेरे मन मे तब से उमड़ रहे थे जब से मैंने सड़को के एक किनारे खाली मगर वह से भी हटाये जाने , किसी की दुत्कार ,और रात के अँधेरे मे चूल्हे मे अपना पेट भरने के लिए ,जलाई गई आग मे सिर्फ धुवा इसलिय फुक रहे होते है क्युकी जीने के लिए जरुरी है शायद .
छुक छुक करती रेलगाड़ी मे से जितनी भी बार मेरी नज़र उन घरो पे पड़ती थी जिसे जमाना झुग्गी -झोपड़ी कहता है ..........और एक दफा मुह सिकोड़ लेता है .शायद घर की एक निश्चित परिभाषा तय कर दी गई है एक बंगला बने प्यारा सा की भावना के साथ ..........यित पत्थरो की चार दिवारी और रंग -बिरंगे चुने से पोती हुई ..........
मे भी इन से अछूती खा रही ,मे भी तो हर दफा यही सोचती थी की आखिर इन मे रहने वाले लोग कैसे अपनी जिन्दगी आराम से बिताते होंगे और भी कई सरे सवाल ..................
और इन सब का जवाब मिलने का सिर्फ एक ही रास्ता था जो सिर्फ और सिर्फ उनके बीच जाकर के ही आगे बढ़ता था और ख़ुशी की बात की ये थी की मुझे वह रास्ता दिख गया था जहा जाने की की मेरी इच्छा कही न कही मेरे मन मे अनचाहे रूप से दबी हुई थी ..........
Wednesday, 20 July 2011
कठपुतली का खेल
कठपुतली का खेल, गाँव नगर, राजदरबार या धर्मस्थलो में आमिर गरीब, शिक्षित अक्षित जनता में सामान रूप से प्रदर्शित होते चले आ रहे है. कथापुँतली प्रदर्शन से जहा जनता का मनोरंजन होता है वही इसके कथानक में धार्मिक आडम्बर दहेज़ प्रथा , बेमेल विवाह , अशिक्षा और कुपोषण जैसी सामाजिक समस्यावो का समावेश कर इनका समाधान करने की प्रेरणा भी प्राप्त होती है. कठपुतली प्रदर्शक अपने मनोभाव को इनके अभिनय के द्वारा व्यक कर आत्म प्रदर्शन करते है...
पारंपरिक लोक माध्यम
पारंपरिक लोक माध्यम का जन्म आदि काल से ही हुआ है .जब मनुष्य संचार का मतलब नहीं जनता था तभी से ये माध्यम अस्तित्व में है सभ्यता के विकाश से ले कर मुद्रण यन्त्र के अविष्कार तक यही माध्यम सन्देश प्रशारण का कार्य करते थे . संचार का यह सर्वाधिक प्रभावी माध्यम है इन माध्यमो के द्वारा पढ़े लेखे तथा अनपढ़ दोनों ही समूहों में सार्थक एवं प्रभावी ढंग से सन्देश पराश्रित किये जा सकते है. इन माध्यमो के अंतर्गत धार्मिक प्रवचन कथा ,वार्ता , संगीत , लोक संगीत ,पर्यटन , यात्रा वृतांत ,नाटक आदि आते है .]
इन लोक माध्यमो की सबसे बड़ी विशेषता है की मनुष्यों द्वारा उस समूह की संस्कृति, भाषा,परिवेश अवं रूचि के अनुरूप संदेशो का सम्प्रेषण किया जाता है जिस समूह में संदेस पराश्रित करना होता है .जनसंचार के पारंपरिक लोक माध्यम आदि कल से ही अस्तित्व में है .
Saturday, 16 July 2011
दयामृत्यु
७ मार्च २०११ को इक्षा मृत्यु या युथेजेनिया पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आया नर्स अरुणा रामचंद्र शानबाग के मामले पर कोर्ट ने दया मृत्यु देने वाली याचिका ख़ारिज कर दी और कहा की चेतन दयामृत्यु गैर कानूनी है लेकिन अति विशेष परिश्थितियों में अचेतन दया मृत्यु को अनुमति दी जासकती है .
इस फैसले के बाद भारत दुनिया के उन चुने हुए देसों में शामिल हो गया है जहा किसी न किसी रूप में दया मृत्यु को कानूनी मान्यता मिली हुई है ,अब तक यह कानूनी रूप से पूरी तरह प्रतिबंधित था. चेतन दया मृत्यु केवल ऐसे मरीजो के लिए होगी जिसका ब्रेन पूरी तरह मृत हो गया हो या स्थायी रूप से निष्क्रिय अवस्था में आ गया हो और कुछ भी करने में अक्षम हो
दया मृत्यु को सामान्य तौर पर युथेजेनिया के रूप में जाना जाता है जिसमे असहनीय दर्द एवं पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए लोग अपनी इक्षा से मृत्यु का वरण करते है...
इस फैसले के बाद भारत दुनिया के उन चुने हुए देसों में शामिल हो गया है जहा किसी न किसी रूप में दया मृत्यु को कानूनी मान्यता मिली हुई है ,अब तक यह कानूनी रूप से पूरी तरह प्रतिबंधित था. चेतन दया मृत्यु केवल ऐसे मरीजो के लिए होगी जिसका ब्रेन पूरी तरह मृत हो गया हो या स्थायी रूप से निष्क्रिय अवस्था में आ गया हो और कुछ भी करने में अक्षम हो
दया मृत्यु को सामान्य तौर पर युथेजेनिया के रूप में जाना जाता है जिसमे असहनीय दर्द एवं पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए लोग अपनी इक्षा से मृत्यु का वरण करते है...
Friday, 27 May 2011
कूड़े में पलता सपना
देश समग्र व उत्तरोत्तर विकास के लिए शिक्षा अकात्य हथियार है |इसके मद्देनजर ही वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने शिक्षा के बजट में २४% की वृद्धि की और ५,२०,५२७ करोण रूपये का प्रावधान उच्च शिक्षा के लिए तय किया |ताकि चीन, रूस,अमेरिका,ब्राजील की भाति भारत भी शिक्षा का स्तर ऊँचा उठा सके और २१वि सदी का सपना पूरा कर सके|मगर अफ़सोस की बात यह है की यह सब मानक जिनके लिए तय किया जाता है वह भविष्य के कर्णधार आज भी उन्ही गंदे ,मलिन बस्तियों ,तालाबों या फिर रेलवे ट्रेक के किनारे पुरे शहर के कूड़े को उठाकर एक वक्त के लिए रोटी-नमक का इंतजाम कर पाते है |जिनके हाथो में कलम होनी चाहिए उनके हाथ शहर की गंदगी से सने पड़े है|ऐसी स्थिति में "सर्व शिक्षा अभियान "मुक्त ,व अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की सफलता की माला जपना कहा तक सही है|जबकि यही बच्चे हमारे समाज की "नीव "है |और अगर ये दिन -रत सिर्फ बोरियों में कूड़ा ही बीन रहे होंगे तो उनसे की जाने वाली उम्मीदें भी कूड़े के ढेर में समाधी ले लेंगी|अतः आवश्यकता है की सरकार के अतिरिक्त हम सब भी मिलकर छोटे -छोटे प्रयास करे की इस समस्या का कोई विकल्प निकल सके | यशस्वी द्विवेदी
Thursday, 5 May 2011
कक्षा ६ में जब मुझे पहली बार बिना गलती के घर में डांट पड़ी तो भगवान के सामने मेरी आंखे डबडबा गयी और अहसास हुआ की कही ये मेरी उम्मीदों का अंत और मेरे जीवन के आशा की आखिरी सांस तो नही ............ मन में एक उथल -पुथल ,आँखों में बचैनी और आँखे खोज रही थी कुछ ऐसा जहा मै मन की बात भगवान के सामने रख सकूँ | किन्तु शर्त थी की अंतिम साँस के पहले ........................
और छोटे -२ उन हाथो ने शुरुआत की अपने अंतिम साँस के थमने की और मन समर्पित हुआ -'इश्वर के प्रति '...........
अंतिम सांसे
कुछ मेरे जीवन की अंतिम सांसे |
गिन-गिन कर मै बिताऊ ||
इस छोटे से आंगन में मै झूम-झूम के गाऊ |
होंगे कभी क्या सपने मेरे पूरे इस आस से मै क्या सुझाऊ ||
देख-देख के मै मस्त पवन को |
मै क्यों इतनी सी रिझाऊ ||
हे ,परमात्मा देना तू शांति
बस इतनी सी आस लगाऊ
बांध पैर में ऐसे नुपुर जिसमे हो कोई अद्भुत झंकार |
जो है निराकार उसी की धरा पर
मै जीवित हिकर गाऊ ||
कभी इधर-इधर ,कभी...कभी उधर-उधर |
ऐसा अनुमान लगाकर मै स्वयं का दीप जलाऊ ||
यह है दीप नही अंगार ,जो तुमसे न देखा जाय |
करो संतोष इसी में तो ,बलिहारी घर मै जाऊ ||
है यही मेरी जीवन गाथा |
इसी को नमाऊ मै अपनी माथा ||
Monday, 2 May 2011
खुद से खिलवाड़ क्यू
लाख कोशिशो के बाद भी आज हम क्यू अपनी योजनाओ को मूर्त रूप में स्थापित नही कर पा रहे है |या तो हम अनजान है या फिर जन बुझकर खुद को सिर्फ सड़क पर दौड़ लगाते ,या फिर सिगरेट के धुए में उड़ाते हुए अपनी भविष्य को नजर अंदाज करने पर आमदा है|क्यू हम स्वर्ग के अस्तित्व पर एक विश्मयबोधक प्रश्नचिन्ह लगाकर "टेक ईट इजी " का लेवल लगाये हुए खुद को सरेआम बेरोजगारी ,अशिक्षा के हाथो मुफ्त में नीलाम करने पर तुले हुए है |
देश के समग्र विकास के लिए जहा हर संभव प्रयास सरकार के द्वारा किया जा रहा है वही समाज और सामाजिक प्राणी कहे जाने वालो में से बीज से लेकर फल तक सब अपनी सुरक्षा के प्रति सचेत ना होकर सिर्फ अलग -२ राग अलापे जा रहे है|
कही ठेले को तेज से खीचते जा रहे भावी कर्णधार पान-मसाला वालो को देखकर "मुन्नी बदनाम हुई "और सिटी बजाकर निकल जाते है तो कही दूसरी ओर साईकिल से जाते एक लड़की के पीछे मंडराते हुए कुछ भौरे "शीला की जवानी "को गुनगुनाने में ही सारा समय बिता देते है| कही बस की सीटो पर बैठे विद्द्यार्थी सिर्फ सिविल लाइन्स का टिकट लेकर झूंसी तक की यात्रा को पार कर लेते है,तो कही परीक्षा देकर लौटा छात्र अपने मित्रो को यह जताकर कि पढाई कि आड़ में वह किस कदर अपने मजबूर माता -पिता को बेवकूफ बनाकर शराफत कि टाई को हर समय मेंटेन किये हुए है |ऐसे नाजुक स्थिति के मद्देनजर अगर आप भारत जैसे वृक्ष के ये जड़, अपनी नीव खुद से कमजोर करने पर तुले हुए है तो कैसे उम्मीद कि जाये कि बौर भी आयेंगे और फल भी मिलेगा |अगर समय रहते हम खुद कि जिम्मेदारी नही समझे तो शायद वह दिन दूर नही कि आज हम सड़क पर भिखारियों को हट्टे -कट्टे होने का ताना देते है,कल उनकी ही श्रेणी में न पहुच जाये क्योकि वर्तमान और भविष्य के बीच अगर सुधार व तालमेल न रखा गया तो यह हमारे लिए एक अबूझ पहेली होगी और हमेशा हलचल पैदा करती रहेगी |
अतः आवश्यक है कि हम अपने आज और कल का भली-भांति मुल्यांकन करे और खुद के साथ खिलवान ना करे |
यशस्वी जी
Sunday, 1 May 2011
ASLI MILAN
असली मिलन
जिन्दगी की कली अभी तक सुखी ही पड़ी थी
उसमे काँटों का आना बाकि था
आंधी रात को आंसमां के उस छोर पर
चंद्रमा का जाना बाकि था
इंतजार था सभी जगत के लोगो को
क्योकि.........
नदियों का मिलना अभी तक जो बाकि था
प्रत्येक पहर पर चारो दिशायों में
कमलियों का श्रृंगार अभी बाकि था
प्रतीक्षा थी प्रतीक्षा की श्रृंखला में
अवशेष बनकर रह गयी
कभी,कभी अचानक
मुझे तुम्हारा साथ मिला
किन्तु,
दुर्भाग्य है वो नजारा बहुत समय के बाद मिला
जिसकी तलाश पर मै भटकती रही थी
जिसकी आस पर मै तड़पती रही थी
वही छोर आज न जाने -
कितने दिनों के बाद मिला
चाहती हूँ तुमसे .........
कभी अलग न मै रहू
किन्तु ,
सफलता का जो झरोखा सा एक बन गया है
उसे विस्तृत रूप देने का जो संकल्प लिया है
उसके लिए यदि तुम और मै,
एक दुसरे से आज अलग होते है
तो विस्वास करो इसे अलग नहीं
बल्कि ...........
मिलना इसी को कहते है
YASHASWI DWIVEDI
Wednesday, 27 April 2011
Monday, 18 April 2011
मॉम नहीं माँ..............
मातृभाषा किसी भी देश, राष्ट्र की व वहां के लोगो का वह पहला आभूषण होता है जिसे उनको व्यक्तित्व की पहचान मिलती है! जहा एक ओर हम अपनी मातृभाषा हिंदी को भूलते हुए नजर आ रहे है वही दूसरी तरफ सौतेली आंग्ला भाषा से नजर मिलते नहीं थक रहे है! क्या यही है हमारी संस्कृति की सभ्यता जिसकी सीमा रेखा को पार करने का दुस्साहस हम कर रहे है !
जब तक हम अपनी भाषा का सम्मान करना नहीं सीखेंगे तब तक भारत्वर्सोनती की कलपना से कोसो दूर रहेंगे! हम क्यों नहीं समझ रहे क़ि जब अपनी माँ के स्थान पर दूसरी माँ को हम फूटी आँखों नहीं देख सकते तो राष्ट्र भासा पर विदेशी भाषा क़ि हुकूमत कैसे सह सकते है ! और आज के आधुनिकरण के दौर में हम अपनी भाषा को पीछे छोड़ कर इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मुकुट सजा रहे है वही १४ सितम्बर को हिंदी दिवस पर बुद्धिजीवियों के विचारो, उनकी भाषा के प्रति लगाव उत्थान प्रक्रिया को बताते है!!!!!!! फिर दुसरे दिन ऐसे विकास करने पर भाषा क़ि महत्ता कितने अनुपात में बढ़ी इसका आकलन हम स्वयं कर सकते है !!आज क्रन्तिकारी दौर में भी यदि हम नहीं जागेंगे तो फिर भाषा के सूर्योदय को हमेशा सूर्यास्त के अँधेरे में ही पयेंगे और इसके महत्व को बढ़ाने के लिए किये गए सरे प्रयास निर्थक सिद्ध होंगे .........................
अतः आज युवा वर्ग को सामने आना होगा अन्य भाषाओ के प्रयोग के साथ साथ अपनी मात्र भाषा को सर्वोच्च स्थान देना होगा तभी हम कह सकेंगे क़ि-
"गायन्ति देवा किलगीतकानी ध्यास्तुते स्वर्गापर्द्गार्स्परा भार्ग भूते भूयः भवन्ति पुरुषाशुरात्त्वात"..............
अगर देवतओं के इस अभिव्यक्ति को समझने में भी हम नासमझी दिखा रहे है तब भार्तेन्दु हरिशचंद का सोचना क़ि -- निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति का मूल !! विन निज भाषा के ज्ञान के मिटे न हिय को शूल.............हम कैसे समझेंगे इसलिए मै सोचती हूँ 'क्याबोलू'...............................
Monday, 4 April 2011
dikha diya vishav vijeta hm........
"वह पथ का पथिक कुशलता क्या जिस पथ में बिखरे शूल न हो
नाविक की धर्म परीक्षा क्या जब धाराए ,प्रतिकूल न हो ........."
२८ सालो के बाद जब जीत का सेहरा हर भारतीय के माथे बंधा तो अनायास ही मुह से निकल ही गया ..........
भारत ने दिखा दिया की आंधी हो या तूफान हम हर हाल में सिकंदर है .........जय हो...........
नाविक की धर्म परीक्षा क्या जब धाराए ,प्रतिकूल न हो ........."
२८ सालो के बाद जब जीत का सेहरा हर भारतीय के माथे बंधा तो अनायास ही मुह से निकल ही गया ..........
भारत ने दिखा दिया की आंधी हो या तूफान हम हर हाल में सिकंदर है .........जय हो...........
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