अचंभित कर रहा जीवन यह
मस्तिष्क पटल पर ख्याल चले
बिन कारण दौड़ लगाते हुए
वन में वानर उत्पात जैसे
कौन हूं मैं , अभिप्राय क्या
इस अनोखे सफर में आकर
क्या खोज में मन नित्य प्रति
इतने गंभीर रूप धारे है यह
नहीं आया समझ में कुछ भी
पूछा जो मुझ जैसे औरों से
मुस्कुराते सब भाग रहे यहां
इक स्वप्नलोक में मरीचिका से
न जाने कब टूटे गा यह
इक मायाजाल इस जीवन का
ठौर नहीं न कोई छोर दिखे
समुद्र में भटकती नैया सा
रचनाकार इस अनोखे सफर के
झलक दिखला इक सौम्य रूप में
तेरे इस विराट रूप में विचलित
विश्राम मिले इस भवसागर से 🌷
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