( एक नीम के पेड़ को अकेले
लहलहाते हुए देख कर )
जब भी आता हैं आँखों के
सामने
तुम्हारे लहराते पत्तियों
का चंचल हरा गुच्छा
सचमुच ,
मेरे मन की खुबसुरती काफी
बढ़ जाती हैं |
हजारों रूप –रंग ,भावनाओं
को समेटे
कभी धीमे से तो कभी चुप
होकर
सहमते हुए कुछ बताना चाहते
हो तुम
शायद |
तुम्हारे बगल में खड़े ,गहरे
हरे पेड़ की
मचलती पत्तियों से क्या
बातें कर रहे हो तुम ?
जरुर कोई खास बात हैं
जोकि
तुम ऊपर उठे और वो झुक कर
कोशिश कर रही हैं तुम्हे
सुनने की |
काफी हद तक तुम कुछ कहना
चाहते हो
हर उस इन्सान को जो
तुम्हारे नीचे से
होकर गुजरता हैं हर ऱोज
निहारता हैं दूर से
शायद कुछ कोरी बाते हैं
जो तुम्हारे ही काग़ज पर आये
बिना निशब्द हैं |
तुम्हे तुम्हारी जगह लाने के लिए
फरसे से लगातार कोशिस करते
हैं हम
घास हटाते ,बीज डालते और
पौधे लगा कर
शायद ....शायद हमारे
स्वार्थ पर ही
कहना चाहते हो कुछ तुम
हमेशा कोशिश करते रहते
हो
हर तरह से
मगर तब तक उसी फरसे से
तुम्हे मिटटी में मिला देते
हैं हम |
(यशस्वी दिवेदी )