- कसमों की लम्बी कतार से अचानक तुम निकल आए आज ...यूँ ही .....बिना बताए ही , उन वादों और भावनाओं के हर जलते हुए दिए को फूक –फूक कर क्यू बुझाने की कोशिश कर रहे हो जिनकी उम्र अभी काफी बाकी हैं ......
पहले जैसे मिठास नहीं रही अब ....शायद मीठापन से मन उतर रहा हैं तुम्हारा ....मगर उस वक़्त का क्या करू जो उन चिट्ठियों में चूर –चूर हो रहा हैं जिसका पन्ना एकदम से पिला पड़ गया हैं ...हर बार जब तेज झमाझम बारीश आने वाली होती हैं तो सूप , गेहूँ , धान को लम्बे –लम्बे कदमों से लाँघ कर ....... उसी डायरी की ओर भागती हु , अपने आँचल में हड़बड़ी से ढक लेने को जिसमे आज भी तुम सिर्फ मेरे हो ........सिर्फ मेरे .......
क्या बोलू ...यह महज़ एक सवाल नहीं हैं ...न ही बस एक विचार ...ये दो शब्द मिल के हर बात को नयी पहचान देते हैं , ऐसे दो राहों को सामने लाते हैं जहा खुद के विवेक का प्रयोग करना ही पड़ता हैं ...बात चाहे किसी सवाल के जवाब देने की हो या फिर खुद को बताने की , या ही दूसरों को सामने लाने की, हर बार मन में ,जबान में पहली सोच ,समझ और शब्द की आवाज और आगाज़ बनता हैं यही की ....क्या बोलू ?????
Wednesday, 17 April 2013
लम्बी कतार .....
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