Tuesday 4 February 2014

( रात से गहरी दोस्ती के ख्याल ने कुछ यूँ आवाज दी ...की रात हैं .....)

रात हैं ......
लग रहा है ...रात है 
रात की आवाज पे मत जाओ 
न ही इसके लिबास पर 
रात क्या तभी रात होती हैं ?
जब ,
अँधेरा होता है
जब सन्नाटा छाता है
जब ,
घरों में लोग चुपचाप करवटें बदलते हैं
जब , सड़कों पे हर पल लोग ठिठुरते हैं |
या फिर
जब चूल्हे से घर में उजाला होता हैं
ढिबरी की लौ -तले
बैठा भविष्य का उम्मीदवार होता हैं
या फिर तब ,
जब आँखों को भीचतें ,
पन्नों को जबरन पलटते
अनचाहे मन से पानी के छीटों को
हर दूसरा बन्दा अपने पलकों में भरता हैं
क्या तभी रात होती हैं ...???
पता नहीं कितने हाँ हैं
इसे बयां करने की खातिर
शायद ,
मायने खिसक रहे हैं
भरी रोशनी के नीचे
शोर –हँसी ,ठहाकों में
आधी –आधी रात को |
जिन्दगी को जीते
रात के हर पहर से
उसका हक़ छिनते हुए |
दिख रहा है ....
रात उदास बैठी हैं
मेरे सामने
अपने आँखों के काजल को
नर्म हाथों से कुरदते
होठों के स्याहीपन से
कुछ बुदबुदाते
घूर कर देखती मुझको
कह रही है ----
मैं रात हूँ .....मुझे रात ही रहने दो |

(यशस्वी )

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