Monday 18 November 2013

( एक नीम के पेड़ को अकेले लहलहाते हुए देख कर )

जब भी आता हैं आँखों के सामने
तुम्हारे लहराते पत्तियों का चंचल हरा गुच्छा
सचमुच ,
मेरे मन की खुबसुरती काफी बढ़ जाती हैं |
हजारों रूप –रंग ,भावनाओं को समेटे
कभी धीमे से तो कभी चुप होकर
सहमते हुए कुछ बताना चाहते हो तुम
शायद |
तुम्हारे बगल में खड़े ,गहरे हरे पेड़ की
मचलती पत्तियों से क्या बातें कर रहे हो तुम ?
जरुर कोई खास बात हैं
जोकि
तुम ऊपर उठे और वो झुक कर
कोशिश कर रही हैं तुम्हे सुनने की |
काफी हद तक तुम कुछ कहना चाहते हो
हर उस इन्सान को जो तुम्हारे नीचे से
होकर गुजरता हैं हर ऱोज
निहारता हैं दूर से
शायद कुछ कोरी बाते हैं
जो तुम्हारे ही काग़ज पर आये बिना निशब्द हैं |
तुम्हे तुम्हारी जगह लाने  के लिए
फरसे से लगातार कोशिस करते हैं हम
घास हटाते ,बीज डालते और पौधे लगा कर
शायद ....शायद हमारे स्वार्थ पर ही
कहना चाहते हो कुछ तुम
हमेशा कोशिश करते रहते हो 
हर तरह से
मगर तब तक उसी फरसे से
तुम्हे मिटटी में मिला देते हैं हम |
(यशस्वी दिवेदी )


Wednesday 17 April 2013

लम्बी कतार .....


Monday 11 March 2013

एक गुजारिश ...




तुम्हारे चेहरे  की  हर लकीर का मतलब खूब समझ जाती हूं  मैं
तुम कहो  न कहो
उसपे हलकी सी  ख़ुशी का भीगा समन्दर
लहरों की करवटों की सुनी आवाज
मेरे  साहिल को सुलझा जाती हैं
लेकिन शर्त बस इतनी सी हैं
कि चेहरा दिखा  दिया करो |

यशस्वी ...

Monday 28 January 2013

कुछ कच्चे -पक्के ख्याल ....आपके साथ


रात के आशियाने में एक चमक सी देखी
एक टूटे तारे की झलक सी देखी
मकसद ये नही था की कुछ मांगना  चाहती थी
मैं उससे जो खुद किसी और के लिए टूटा था
मैं तो तलाश रही थी खुद की झलक
जिसमे सिर्फ मैं और मेरी झलक का जूनून था
कुछ जुगनू आये और आते रहे
कुछ का नामो - निशान
अभी भी उस गुम -सुम पेड़ पे अटका हैं
जहा कभी उनका गुलज़ार होता था
एतबार होत़ा था
एक अधूरी सी कहानी हिसाब
मांगती हैं उन सारे  बिखरे पलों का
जब हम दोनों साथ बैठे थे
जहा वो थी मेरी सहेली मगर मैं उसकी कोई नही
खुली किताब का हर पन्ना ,हर पल
एक आहट  के साथ आकर सिकुड़ जाता हैं
जहा मैं अपनी तन्हाईयों मैं खो जाती हूं
है जरा चंचल सा मन मगर ,कठोर नही
बीएस हर  आश  को पूरा करना करना
और उसमे जी लेना चाहती हूँ
एक हलकी सी छुवन ,उस नर्म   पौधे की
जो खुद ही सिसक रहा हैं
पाने को बेताब नही मगर
उससे रु -बरु  होना चाहती हूँ
शायद ,
निर्भय मन की ये एक और ख्वाहिश हैं
एक पैगाम हैं ये आखिरी तो नही
मगर हा आखिरी से कम भी नही,,,,,
                                                                यशस्वी दिवेदी