Friday 27 May 2011

                    कूड़े में पलता सपना 
देश समग्र व उत्तरोत्तर विकास के लिए शिक्षा अकात्य हथियार है |इसके मद्देनजर ही वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने शिक्षा के बजट में २४% की वृद्धि की और ५,२०,५२७ करोण रूपये का प्रावधान उच्च शिक्षा के लिए तय किया |ताकि चीन, रूस,अमेरिका,ब्राजील की भाति भारत भी शिक्षा का स्तर ऊँचा उठा सके और २१वि सदी का सपना पूरा कर सके|मगर अफ़सोस की बात यह है की यह सब मानक जिनके लिए तय किया जाता है वह भविष्य के कर्णधार आज भी उन्ही गंदे ,मलिन बस्तियों ,तालाबों या फिर रेलवे ट्रेक के किनारे पुरे शहर के कूड़े को उठाकर एक वक्त के लिए रोटी-नमक का इंतजाम कर पाते है |जिनके हाथो में कलम होनी चाहिए उनके हाथ शहर की गंदगी से सने पड़े है|ऐसी स्थिति में "सर्व शिक्षा अभियान "मुक्त ,व अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की सफलता की माला जपना कहा तक सही है|जबकि यही बच्चे हमारे समाज की "नीव "है |और अगर ये दिन -रत सिर्फ बोरियों में कूड़ा ही बीन रहे होंगे तो उनसे की जाने वाली उम्मीदें भी कूड़े के ढेर में समाधी ले लेंगी|अतः आवश्यकता है की सरकार के अतिरिक्त हम सब भी मिलकर छोटे -छोटे प्रयास करे की इस समस्या का कोई विकल्प निकल सके |                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                           यशस्वी द्विवेदी
 

Thursday 5 May 2011

कक्षा ६ में जब मुझे  पहली बार बिना गलती के घर में डांट पड़ी तो भगवान के सामने मेरी आंखे डबडबा गयी और अहसास हुआ की कही ये मेरी उम्मीदों का अंत और मेरे जीवन के आशा की आखिरी सांस तो नही ............   मन में एक उथल -पुथल ,आँखों में बचैनी और आँखे खोज रही थी कुछ ऐसा जहा मै मन की बात भगवान के सामने रख सकूँ |  किन्तु शर्त थी की अंतिम साँस के पहले ........................ 
                                                                 और छोटे -२ उन हाथो ने शुरुआत की अपने अंतिम साँस के थमने की और मन समर्पित हुआ -'इश्वर के प्रति '...........

                                   अंतिम सांसे 

      कुछ मेरे जीवन की अंतिम सांसे                                    |
            गिन-गिन कर मै बिताऊ                                               ||
            इस छोटे से आंगन में मै झूम-झूम के गाऊ                     |
            होंगे कभी क्या सपने मेरे पूरे इस आस से मै क्या सुझाऊ ||
            देख-देख के मै मस्त पवन को                                         |
            मै क्यों इतनी सी रिझाऊ                                                ||
            हे ,परमात्मा देना तू शांति 
                    बस इतनी सी आस लगाऊ                                    
           बांध पैर में ऐसे नुपुर जिसमे हो कोई अद्भुत झंकार          |
          जो है निराकार उसी की धरा पर
                                                    मै जीवित हिकर गाऊ          ||
          कभी इधर-इधर ,कभी...कभी उधर-उधर                        |
               ऐसा अनुमान लगाकर मै स्वयं का दीप जलाऊ          ||   
         यह है दीप नही अंगार ,जो तुमसे न देखा जाय                  |
         करो संतोष इसी में तो ,बलिहारी घर मै जाऊ                   ||
         है यही मेरी जीवन गाथा                                                  |
         इसी को नमाऊ मै अपनी माथा                                       ||

Monday 2 May 2011

                 खुद से खिलवाड़ क्यू


लाख कोशिशो के बाद भी आज हम क्यू अपनी योजनाओ को मूर्त रूप में स्थापित नही कर पा रहे है |या तो हम अनजान है या फिर जन बुझकर खुद को सिर्फ सड़क पर दौड़ लगाते ,या फिर सिगरेट के धुए में उड़ाते हुए अपनी भविष्य  को नजर अंदाज करने पर आमदा है|क्यू हम स्वर्ग के अस्तित्व पर एक विश्मयबोधक प्रश्नचिन्ह लगाकर "टेक ईट इजी " का लेवल लगाये हुए खुद को सरेआम बेरोजगारी ,अशिक्षा के हाथो मुफ्त में नीलाम करने पर तुले हुए है |
                      देश के समग्र विकास के लिए जहा हर संभव प्रयास सरकार के द्वारा किया जा रहा है वही समाज और सामाजिक प्राणी कहे जाने वालो में से बीज से लेकर फल तक सब अपनी सुरक्षा के प्रति सचेत ना होकर सिर्फ अलग -२ राग अलापे जा रहे है|
                     कही ठेले को तेज से खीचते जा रहे भावी कर्णधार पान-मसाला वालो को देखकर "मुन्नी बदनाम हुई "और सिटी बजाकर निकल जाते है तो कही दूसरी ओर साईकिल से जाते एक लड़की के पीछे मंडराते हुए कुछ भौरे "शीला की जवानी "को गुनगुनाने में ही सारा समय बिता देते है| कही बस की सीटो पर बैठे विद्द्यार्थी सिर्फ सिविल लाइन्स का टिकट लेकर झूंसी तक की यात्रा को पार कर लेते है,तो कही परीक्षा देकर लौटा छात्र अपने मित्रो को यह जताकर कि पढाई कि आड़ में वह किस कदर अपने मजबूर माता -पिता को बेवकूफ बनाकर शराफत कि टाई को हर समय मेंटेन किये हुए है |ऐसे नाजुक स्थिति के मद्देनजर अगर आप भारत जैसे वृक्ष के ये जड़, अपनी नीव खुद से कमजोर करने पर तुले हुए है तो कैसे उम्मीद कि जाये कि बौर भी आयेंगे और फल भी मिलेगा |अगर समय रहते हम खुद कि जिम्मेदारी नही समझे तो शायद वह दिन दूर नही कि आज हम सड़क पर भिखारियों को हट्टे -कट्टे होने का ताना देते है,कल उनकी ही श्रेणी में न पहुच जाये क्योकि वर्तमान और भविष्य के बीच अगर सुधार व तालमेल न रखा गया तो यह हमारे लिए एक अबूझ पहेली होगी और हमेशा हलचल पैदा करती रहेगी |

                        अतः आवश्यक है कि हम अपने आज और कल का भली-भांति मुल्यांकन करे और खुद के साथ खिलवान ना करे |





                                                                                           यशस्वी जी 

 

Sunday 1 May 2011

ASLI MILAN

                                                         असली मिलन

जिन्दगी की कली अभी तक सुखी ही पड़ी थी 
           उसमे काँटों का आना बाकि था 
आंधी रात को आंसमां के उस छोर पर              
           चंद्रमा का जाना बाकि था
इंतजार था सभी जगत के लोगो को 
क्योकि.........
 नदियों का मिलना अभी तक जो बाकि था
 प्रत्येक पहर पर चारो दिशायों में 
 कमलियों का श्रृंगार अभी बाकि था 
     प्रतीक्षा थी प्रतीक्षा की श्रृंखला में 
         अवशेष बनकर रह गयी 
    कभी,कभी अचानक 
           मुझे तुम्हारा साथ मिला 
किन्तु,
दुर्भाग्य है वो  नजारा बहुत समय के बाद मिला 
जिसकी तलाश पर मै भटकती रही थी
जिसकी आस पर मै तड़पती रही थी
वही छोर आज न जाने -
                कितने दिनों के  बाद मिला

चाहती हूँ तुमसे .........
कभी  अलग न मै रहू 
किन्तु ,
सफलता का जो झरोखा सा एक बन गया है 
उसे विस्तृत रूप देने का जो संकल्प लिया है
उसके लिए यदि तुम और मै,

एक दुसरे से आज अलग होते है 
तो विस्वास करो  इसे अलग नहीं 
बल्कि ...........
मिलना इसी को कहते है
  

                
                                      YASHASWI DWIVEDI